Thursday, June 28, 2012
Wednesday, February 15, 2012
मूर्ति गाथा के निहितार्थ
मूर्ति गाथा के निहितार्थ
उत्तर प्रदेश में मायावती और पार्को में लगी हाथियों कि मूर्तियों को ढक देने का मामला चर्चा का विषय बना रहा . भारतीय समाज में मूर्तिओं के प्रति विशेष लगाव और दृष्टीकोण को देख जा सकता है . बड़े से बड़ा " मूर्ति " विरोधी भी इस लगाव का शिकार होने से आपने आप को बचा नहीं पाया . "पाथर" पूजने के घोर विरोधी कबीर को भी पाथर में ढल जाना पड़ा .धातु, मिटटी या पत्थर की बनी मूर्तियों के साथ कई आयाम जुड़े होते है . राजनीतिक आयामों के साथ साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष भी गहरे जुड़ा होता है . बुतपरस्ती न करने वाले देशों में भी मूर्तियों के बनने और टूटने की तात्कालिक घटनाओं को हम इराक और लीबिया में देख चुके है .
दुनिया भर के देशों में युद्ध नायकों की मूर्ति लगाने का चलन है. जिन नायकों की मुर्तिओं में घोडें साथ हो उनमे घोड़ों की अगली टांग से योद्धा की मृत्यु का कारण स्पष्ट हो जाता है . यदि मूर्ति में घोड़े की अगली दोनों टाँगें हवा में उठी हो तो; अर्थ है कि सवार नायक की मृत्यु युद्ध क्षेत्र में हुई थी .अगली टागों में से केवल एक के उठे होने का अर्थ निकलता है कि सवार नायक की मृत्यु युद्ध में घायल होने के कारण हुई. तीसरी और अंतिम स्थिति बनती है ,जब दोनों टाँगें जमीन पर टिकी हो . इस स्थिति का अर्थ है कि सवार नायक की मृत्यु प्राकृतिक रूप में हुई .
भारत में जिन भी देवी देवता की मूर्ति बनती या बनायीं जाती है उनमे उनसे सम्बंधित प्रभाव को पैदा करने का काम भी किया जाता है. बुद्ध और महावीर की मूर्ति के बीच अंतर उनकी भंगिमा के आधार पर ही किया जाता है .बुद्ध की मूर्ति में हाथ उपदेश की मुद्रा में होता है तो महावीर की मूर्ति में हाथ पद्मासन की मुद्रा में होता है . ईसा मसीह की सूली चढ़ने की स्थिति वाली मूर्ति को देख कर सबको पीड़ा और करुणा का अनुभव हो जाता है .
रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति घोड़े पर सवार ,हाथ में तलवार और पीठ पर बच्चे को बांधे दिखती है .चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति और फोटो मूंछ पर ताव देते ही दिखती है .अभी हाल में भगत सिंह की भंगिमा को लेकर विवाद भी पैदा हुआ था . "शहीदे आजम" भगत सिंह की हैट वाली भंगिमा के स्थान पर पगड़ी वाली स्थिति को तवज्जो देकर भगत सिंह की राजनीती को नेपथ्य में धकेलने का उद्देश्य सामने रखा गया था . "हैट" की जगह "पगड़ी" पहना देने भर से सन्देश और प्रभाव दोनों में गुणात्मक बदलाव आ जाता है .
अम्बेडकर ने दलितों के सामाजिक और राजनीतिक ताकत और पहचान के लिए निरंतर नेतृत्वकारी संघर्ष किया .आजादी के बाद जब संविधान बनाने की जिम्मेदारी मिली तो "समानता" के सिद्धांत को व्याहारिक जामा पहनाया .बहुत संभव है कि अम्बेडकर के अलावा दूसरा इतने प्रभावी ढंग से "संविधान के समक्ष समानता" को शायद ही स्थापित कर पाता. सदियों से दमित और शोषित लोगों को आत्मविश्वास से सपन्न करने के लिए अम्बेडकर ने "शिक्षित बनो " ,"संघर्ष करो " का रास्ता दिखाया . उनके राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संदेशो को हम उनकी उन मूर्तियों से ग्रहण करते है जो देश के कोने कोने में लगाई गई है .अपनी मूर्तियो में अम्बेडकर एक हाथ में किताब संभाले दूसरे उठे हाथ की अंगुली से संघर्ष के लिए प्रेरित करते महसूस होते है . बदलाव और संघर्ष की जिजीविषा का सन्देश स्पष्टतया संप्रेषित हो जाती है .ऐसा नहीं हो सकता कि डा अम्बेडकर अपने सामान्य जीवन में चौबीसों घंटे हाथ में किताब लेकर रहते हो .पर अम्बेडकर प्रभावी और सार्थक भंगिमा का निर्माण इस "किताब" के बिना शायद नहीं हो सकता था .
अन्य महान माने गए व्यक्तित्वों की मूर्तियो के साथ भी ऐसा ही कहा जा सकता है कि उनको लगाये जाने के पीछे के राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संदेशो को किसी न किसी रूप में समझा जा सकता है . मूर्तियो के लगाये जाने का कोई न कोई राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक कारण जरूर होता है .गाँव के दलित बस्ती में लगने वाले अम्बेडकर की मूर्ति से उस बस्ती का आदमी अपने भीतर आत्मविश्वास और आगे बढ़ने की प्रेरणा ग्रहण करता है . मूर्ति के हाथ में किताब का होना एक बड़े प्रतीक और सशक्त सन्देश में बदल जाता है . उठी अंगुली से शिक्षा और राजनीती की ओर बढने की अदम्य प्रेरणा मिलती है .अम्बेडकर की जितनी भी मूर्तियाँ देश भर में लगी है ,उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि ये मूर्तियाँ सरकारी पहल से कम और आम दलित ,शोषित जनसमुदाय के आंदोलनों से ज्यादा लगी है . उत्तर प्रदेश में भी ये मुर्तिया बहुत पहले से इसी तरह की पहलकदमी से लगती रही है .राजनीतिक चेतना को सामाजिक और सांस्कृतिक आधार के साथ विकसित करने का काम इन मूर्तियो के रस्ते भी हुआ है .
उत्तर प्रदेश में अपने शासन कल में मायावती ने दलित अस्मिता की पहचान और स्वाभिमान को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए कई स्मारकों और पार्को का निर्माण करवाया है . इनमें इतिहास की धारा में जबरन किनारे कर दिए गए दलित नेतायों की मूर्तियाँ लगी हुई है . इन मूर्तियों में मायावती की भी मूर्ति लगी हुई है . अम्बेडकर की मूर्ति यहाँ भी "किताब" और "उठी उंगली " के साथ है . मायावती की मूर्ति चंहुदिसि स्थिति में लगी हुई है . अपनी ऊँची भव्य मूर्ति में मायावती के एक हाथ में "पर्स" लटक रहा है . अब इस मूर्ति भंगिमा से कौन से राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक सन्देश ग्रहण किया जायेगा , यह विद्वानों के विचार का क्षेत्र का विषय हो जाता है .
मनोज पाण्डेय
उत्तर प्रदेश में मायावती और पार्को में लगी हाथियों कि मूर्तियों को ढक देने का मामला चर्चा का विषय बना रहा . भारतीय समाज में मूर्तिओं के प्रति विशेष लगाव और दृष्टीकोण को देख जा सकता है . बड़े से बड़ा " मूर्ति " विरोधी भी इस लगाव का शिकार होने से आपने आप को बचा नहीं पाया . "पाथर" पूजने के घोर विरोधी कबीर को भी पाथर में ढल जाना पड़ा .धातु, मिटटी या पत्थर की बनी मूर्तियों के साथ कई आयाम जुड़े होते है . राजनीतिक आयामों के साथ साथ सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष भी गहरे जुड़ा होता है . बुतपरस्ती न करने वाले देशों में भी मूर्तियों के बनने और टूटने की तात्कालिक घटनाओं को हम इराक और लीबिया में देख चुके है .
दुनिया भर के देशों में युद्ध नायकों की मूर्ति लगाने का चलन है. जिन नायकों की मुर्तिओं में घोडें साथ हो उनमे घोड़ों की अगली टांग से योद्धा की मृत्यु का कारण स्पष्ट हो जाता है . यदि मूर्ति में घोड़े की अगली दोनों टाँगें हवा में उठी हो तो; अर्थ है कि सवार नायक की मृत्यु युद्ध क्षेत्र में हुई थी .अगली टागों में से केवल एक के उठे होने का अर्थ निकलता है कि सवार नायक की मृत्यु युद्ध में घायल होने के कारण हुई. तीसरी और अंतिम स्थिति बनती है ,जब दोनों टाँगें जमीन पर टिकी हो . इस स्थिति का अर्थ है कि सवार नायक की मृत्यु प्राकृतिक रूप में हुई .
भारत में जिन भी देवी देवता की मूर्ति बनती या बनायीं जाती है उनमे उनसे सम्बंधित प्रभाव को पैदा करने का काम भी किया जाता है. बुद्ध और महावीर की मूर्ति के बीच अंतर उनकी भंगिमा के आधार पर ही किया जाता है .बुद्ध की मूर्ति में हाथ उपदेश की मुद्रा में होता है तो महावीर की मूर्ति में हाथ पद्मासन की मुद्रा में होता है . ईसा मसीह की सूली चढ़ने की स्थिति वाली मूर्ति को देख कर सबको पीड़ा और करुणा का अनुभव हो जाता है .
रानी लक्ष्मीबाई की मूर्ति घोड़े पर सवार ,हाथ में तलवार और पीठ पर बच्चे को बांधे दिखती है .चन्द्रशेखर आजाद की मूर्ति और फोटो मूंछ पर ताव देते ही दिखती है .अभी हाल में भगत सिंह की भंगिमा को लेकर विवाद भी पैदा हुआ था . "शहीदे आजम" भगत सिंह की हैट वाली भंगिमा के स्थान पर पगड़ी वाली स्थिति को तवज्जो देकर भगत सिंह की राजनीती को नेपथ्य में धकेलने का उद्देश्य सामने रखा गया था . "हैट" की जगह "पगड़ी" पहना देने भर से सन्देश और प्रभाव दोनों में गुणात्मक बदलाव आ जाता है .
अम्बेडकर ने दलितों के सामाजिक और राजनीतिक ताकत और पहचान के लिए निरंतर नेतृत्वकारी संघर्ष किया .आजादी के बाद जब संविधान बनाने की जिम्मेदारी मिली तो "समानता" के सिद्धांत को व्याहारिक जामा पहनाया .बहुत संभव है कि अम्बेडकर के अलावा दूसरा इतने प्रभावी ढंग से "संविधान के समक्ष समानता" को शायद ही स्थापित कर पाता. सदियों से दमित और शोषित लोगों को आत्मविश्वास से सपन्न करने के लिए अम्बेडकर ने "शिक्षित बनो " ,"संघर्ष करो " का रास्ता दिखाया . उनके राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संदेशो को हम उनकी उन मूर्तियों से ग्रहण करते है जो देश के कोने कोने में लगाई गई है .अपनी मूर्तियो में अम्बेडकर एक हाथ में किताब संभाले दूसरे उठे हाथ की अंगुली से संघर्ष के लिए प्रेरित करते महसूस होते है . बदलाव और संघर्ष की जिजीविषा का सन्देश स्पष्टतया संप्रेषित हो जाती है .ऐसा नहीं हो सकता कि डा अम्बेडकर अपने सामान्य जीवन में चौबीसों घंटे हाथ में किताब लेकर रहते हो .पर अम्बेडकर प्रभावी और सार्थक भंगिमा का निर्माण इस "किताब" के बिना शायद नहीं हो सकता था .
अन्य महान माने गए व्यक्तित्वों की मूर्तियो के साथ भी ऐसा ही कहा जा सकता है कि उनको लगाये जाने के पीछे के राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक संदेशो को किसी न किसी रूप में समझा जा सकता है . मूर्तियो के लगाये जाने का कोई न कोई राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक कारण जरूर होता है .गाँव के दलित बस्ती में लगने वाले अम्बेडकर की मूर्ति से उस बस्ती का आदमी अपने भीतर आत्मविश्वास और आगे बढ़ने की प्रेरणा ग्रहण करता है . मूर्ति के हाथ में किताब का होना एक बड़े प्रतीक और सशक्त सन्देश में बदल जाता है . उठी अंगुली से शिक्षा और राजनीती की ओर बढने की अदम्य प्रेरणा मिलती है .अम्बेडकर की जितनी भी मूर्तियाँ देश भर में लगी है ,उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि ये मूर्तियाँ सरकारी पहल से कम और आम दलित ,शोषित जनसमुदाय के आंदोलनों से ज्यादा लगी है . उत्तर प्रदेश में भी ये मुर्तिया बहुत पहले से इसी तरह की पहलकदमी से लगती रही है .राजनीतिक चेतना को सामाजिक और सांस्कृतिक आधार के साथ विकसित करने का काम इन मूर्तियो के रस्ते भी हुआ है .
उत्तर प्रदेश में अपने शासन कल में मायावती ने दलित अस्मिता की पहचान और स्वाभिमान को प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए कई स्मारकों और पार्को का निर्माण करवाया है . इनमें इतिहास की धारा में जबरन किनारे कर दिए गए दलित नेतायों की मूर्तियाँ लगी हुई है . इन मूर्तियों में मायावती की भी मूर्ति लगी हुई है . अम्बेडकर की मूर्ति यहाँ भी "किताब" और "उठी उंगली " के साथ है . मायावती की मूर्ति चंहुदिसि स्थिति में लगी हुई है . अपनी ऊँची भव्य मूर्ति में मायावती के एक हाथ में "पर्स" लटक रहा है . अब इस मूर्ति भंगिमा से कौन से राजनीतिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक सन्देश ग्रहण किया जायेगा , यह विद्वानों के विचार का क्षेत्र का विषय हो जाता है .
मनोज पाण्डेय
Subscribe to:
Posts (Atom)